ये तबका लिली के फूल या छिटकती चांदनी पर कविता नहीं करता. क्रांति की आग भी इनमें नहीं दिखती. दिखता है तो दिन से रात तक सुलगते-भीगते मौसमों में काम का जज़्बा. छूते मैली पड़ें, ऐसी चमकदार इमारतें बनाते ये मजदूर भी ख्वाब देखते हैं- भरपेट खाने का. और कर्ज उतारकर गांव लौटने का.
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